हफ्तावसूली पार्टी से बीजेपी का इकरार?

राजनीति चीज ही ऐसी है यहां ना स्थायी मित्र हैं ना शत्रु। महाराष्ट्र की राजनीति फिर करवट ले चुकी है। शिवसेना और बीजेपी फिर साथ साथ हैं। जनादेश को तोड़ना मरोड़ना और नए पैकेट में लपेटना आज के दौर की राजनीति है। बीजेपी के लिए महाराष्ट्र में सरकार बनाने का रास्ता साफ है। शिवसेना की ऐठन खत्म हो चुकी है। ऐठन शिवसेना को थी लेकिन दवा बीजेपी को मिली। वो भी एनसीपी से। मोदी के लब्जों में कहें तो नेचुरली करप्ट पार्टी से। जिसने सदन में विश्वास मत के दौरान गैर हाज़िर रहने का ऐलान कर बीजेपी को संजीवनी दे दी और शिवसेना की ऐंठन भी कम कर दी। शिवसेना ने भी हार नहीं मानी। मुख्यमंत्री बीजेपी को चुनना है लेकिन मरोड़ शिवसेना को हो रहा है। शिवसेना फड़नवीस के आगे नितिन गडकरी के नाम की वकालत कर रही है। वैसे शिवसेना के लिए बीजेपी से गठबंधन मजबूरी ही थी। कोढ़ में खाज ये कि अगर शिवसेना साथ नहीं आती तो बीजेपी उन तमाम नगर पालिकाओं और पंचायतों से समर्थन वापस लेती जहां शिवसेना की सेना राज कर रही है। वैसे बीजेपी शिवसेना के रिश्तों में उतार चढ़ाव का ये दौर नया नहीं है। वक्त वक्त पर ऐसे मौके आते रहे हैं। 1966 में मराठी मानुष की राजनीति के साथ शिवसेना की शुरुवात हुई। साल 1989 का आया जब भगवा ब्रिगेड यानी बीजेपी और शिवसेना ने मिलकर मराठा राजनीति का फैसला लिया। इस गठबंधन के अहम सूत्रधार बने बीजेपी के अहम रणनीतिकारों में से एक रहे प्रमोद महाजन। लेकिन गठबंधन के महज दो सालों के भीतर हाय तौबा मच गई। इस झगड़े का केंद्र बने छगन भुजबल जिन्होंने 1991 में दलबल के साथ कांग्रेस का दामन थाम लिया। हालात कुछ ऐसे बनते है कि शिवसेना के विधायकों की संख्या बीजेपी के मुकाबले कम हो जाती है। बीजेपी नेता विपक्ष पद पर दावा ठोंकती है। शिवसेना को ये रास नहीं आता और तू तू मैं मैं शुरू हो जाती है। बात आगे बढ़ती है। साल आता है 1995 का जब बीजपी और शिवसेना मिलकर सरकार बनाती हैं लेकिन मंत्री पद को लेकर झगड़ा शुरू हो जाता है। खैर 2:1  के आधार पर मंत्री पदों का बंटवार भी हो जाता है। इस वक्त शिवसेना उसी फार्मूला के तहत सरकार में हिस्सा चाह रही है, पर बीजेपी की याद्दाश्त कमजोर नजर आ रही है। साल आता है 2005 का जब हालात ठीक 1991 जैसे हो जाते है जब नारायण राणे पार्टी को अलविदा कहते हैं। बीजेपी फिर से नेता विपक्ष का पद मांगती है पर शिवसेना बड़े भाई की भूमिका निभाते हुए बीजेपी को डपट देती है। खटास पिछले 5 सालों में भी कई बार नजर आई जब बीजेपी राजठाकरे की मनसे से पींगे बढ़ाती हुई नजर आई। जैसा कभी नहीं हुआ वो इन विधान सभा चुनावों से ठीक पहले हुआ जब सीटों के बंटवारे की राजनीति ने 25 साल पुराना याराना तोड़ दिया। बीजेपी ने पुराने यार को हफ्ता वसूली पार्टी कहा तो शिवसेना ने मोदी की तुलना अफजल खान से कर दी। लेकिन वक्त का तकाजा देखिए शिवसेना अफजल खान की सेना से हाथ मिलाने को मजबूर है तो बीजेपी हफ्ता वसूली पार्टी से। शायद इसी को राजनीति कहते हैं जो इस वक्त महाराष्ट्र में हो रही है।

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