पी. ऍम. मोदी की टी पार्टी

पीएम मोदी टी पार्टी करने में माहिर हैं। पहले आम जनता के साथ चाय पे चर्चा किया करते थे जो फिलहाल बंद है। इस दौर में पत्रकारों और एनडीए सांसदों के साथ अंग्रेजी में टी पार्टी करते हैं। टी पार्टी का नाम सुनकर इतिहास के पन्नों में दर्ज 16 दिसंबर 1773 की तारीख भी याद आती है। जब अमरीका के बोस्टन में स्थानीय लोगों ने ब्रिटिश टैक्स का विरोध करते हुए चाय के डिब्बे समुद्र में फेंक दिए थे। तब से यह घटना “बोस्टन टी पार्टी के नाम से मशहूर हुई। जिस तरह से बोस्टन टी पार्टी का कोई कनेक्शन सामान्य चाय-पानी से नहीं था, ठीक उसी तरह मोदी की हर टी-पार्टी के, हर एक दौर का मकसद बेहद सधा हुआ और अलग होता है। एनडीए सांसदों के साथ टी पार्टी का असल मकसद अकालीयों और शिवसैनिकों के साथ आई खटास को पाटने से था। ये खटास चुनावी है, इसे मंत्री पदों की चासनी में डुबोना होगा। बीजेपी को उम्मीद रही होगी, इस पार्टी में शिवसेना सुप्रीमों उद्धव ठाकरे के आने की । ताकि मोदी के साथ चाय डिप्लोमेसी के बहाने महाराष्ट्र में सरकार गठन का रास्ता साफ हो सके। उद्धव नहीं आए, आते भी कैसे पार्टी एनडीए सांसदों के लिए थी। दरसल मोदी हर बात की मार्केटिंग अच्छी करते हैं। इसीलिए बड़ी ही समझदारी के साथ इस टी पार्टी को नाम दिया गया टी पार्टी इन मोदी क्लासरूम। शाम होते होते खबर आई कि ये पार्टी सांसदों और मंत्रियों से होमवर्क रिपोर्ट लेने के लिए थी। इस तरह के मेल मिलाप में कोई बुराई नहीं, संवाद होना भी चाहिए लेकिन गुमराह करने की कोशिशों से बचा जाए तो अच्छा। सांसदों की टी-पार्टी से 30 घंटे पहले पीएम ने पत्रकारों को भी टी-पार्टी दी, वैसे मोदी जी पत्रकारों प्रेस कांफ्रेस के दौरान भी टी पार्टी दी जा सकती है। तमाम चैनलों ने खबर चलाई की पत्रकारों से संवाद हीनता के आरोपों को तोड़ने के लिए मोदी ने ये टी पार्टी दी है। और टी पार्टी के दौरान जब मोदी ने ये कहा कि कभी मैं आपके लिए कुर्सियां लगाया करता था। मानो पूरा का पूरा मीडिया मोदी की शान में कसीदे पढ़ने लगा। तमाम पत्रकार मोदी से हाथ मिलाकर, सेल्फी लेकर चहचहाते दिखे। भूल गए कि दवाओं की कीमतें बढ़ने से लेकर एम्स सीवीओ तक, आलू की बढ़ती कीमतों से लेकर काले धन तक ना जाने कितने ही मुद्दों पर जनता मोदी से जवाब चाहती है। जिनका जवाब पूछना पत्रकारों की नैतिक जिम्मेदारी थी। पर टी पार्टी में शिरकत करने वाले पत्रकार शायद ये भूल गए। इस गुमान में ही गद गद हो गए की मोदी ने हमे वक्त तो दिया। खबरिया चैनलों ने मोदी पुराण से लेकर मोदी गाथा तक ना जाने क्या चला डाला। मोदी भी शायद अगर बेबाकी से खुली मंच पर कैमरों के बीच सवालों का जवाब देते तो वे एक तरफ संवाद करने वाले नेता के तौर पर बन रही अपनी छवि को तोड़ पाते। हम पत्रकार आलोचना के लिए बदनाम रहते हैं। ये अलग बात है कि आज ऐसे खबरिया चैनलों और अखबारों की भरमार है जो गुणगान के लिए मशहूर रहते हैं। सरकार की किसी भी नीति की आलोचना कर के देखिए सोशल मीडिया पर पूरी फौज, आपको निम्न स्तर के शब्दों से घायल करने को बेताब बैठी है।इस छोटे से लेख के जरिए उम्मीद करता हूं मोदी समर्थक मुझे अभिव्यक्ती की आजादी का मौलिक अधिकार प्रदान करेंगे।

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