माँ महिषासुर मर्दिनी को कैसे मनाएं

शारदीय दुर्गा पूजा महोत्सव में

माँ महिषासुर मर्दिनी को कैसे मनाएं

 

जहां एक तरफ लोग नवरात्री का त्योहार मनाते हैं वहीं दूसरी तरफ लोग माँ दुर्गा  – महिषासुर मर्दिनी की पूजा में जोरों शोरों से जुट जाते हैं। नवरात्री से थोड़ा भिन्न जहां हर घर पर देवी मां  के कलस की स्थापना होती है वहीं माँ दुर्गा यानि महिषासुर मर्दिनी की पूजा के लिए यहां भी नवरात्री के प्रथम तिथी पर माँ दुर्गा यानि महिषासुर मर्दीनी के पूजा अर्चना के लिए कलश की स्थापना की जाती है किन्तु एक सार्वजनिक स्थान पर एक विशाल पाण्डाल बनाकर जहां हर कोई आकर माँ दुर्गा के महिषासुर मर्दिनी रूप की पूजा अर्चना कर माँ का आशीरर्वाद प्राप्त करता है।  नवरात्री की षष्ठी तिथी को माँ महिषासुर मर्दिनी की विशाल प्रतिमा स्थापित की जाती है और इसी दिन से शुरूआत होती है इन पाण्डालों में चहल पहल और रौनक। रंग बिरंगे नए वस्त्र धारण कर सपरिवार माँ  का आशीर्वाद प्राप्त करने लोगों का लगातार यहां आना लगा रहता है। भारी संख्या में महिलाएं और युवा अपनी मनोकामना के फलीभूत होने के उद्यश्य से फूलों से मां को पुष्पांजली देते हैं।
शाम के वक्त माँ की विशेष आरती का प्रयोजन होता है। इस विशेष आरती में भारी संख्या में भावविभोर भक्त नाचते हुए माँ की आरती करते नज़र आते हैं। इसमें मिट्टी निर्मित आरती के विशेष पात्र में नारियल के सूखे छिलके को प्रज्जवलित कर उसमें एक खास प्रकार की सुगंधित धूप और सामग्री डाली जाती है और फिर उसे हाथों में लेकर नाचते ढाक यानि ढोल के मस्त ताल पर नाचते हुए माँ की आरती उतारी जाती है। इस विशेष आरती को धुनुची नाच आरती कहा जाता है जिसे भक्त खुलकर नाचते हुए आनंदित और प्रफुल्लित दिखाई पड़ते हैं।
माँ  की इस पूजा में संधी पूजा का प्रावधान है जिसका माँ महिशासुर मर्दिनी की पूजा में एक महत्वपूर्ण स्थान है। संधी पूजा में महिषासुर मर्दिनी को 108 कमल के पुष्प अर्पित कर और 108 फूलों से सुसज्जित एवं प्रज्जवलित दीप माला से माँ की पूजा अर्चना की जाती है। ऐसी मान्यता है कि इन दिनों मां धरती पर अपने मायके में आती हैं और दश्मी के दिन माँ की विदाई होती है जब ऐसा माना जाता है कि मां उद्दण्ड दानव महिषासुर का वध करने के पश्चात् धरती को राक्षस विहीन एवं भयमुक्त कर अपने ससुराल वापिस चली जाती हैं।  महिषासुर पर माँ को जो अपार विजय प्राप्त हुई उस कारण ये दिन विजया दशमी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विजया दशमी के दिन माँ को विदाई दिया जाता है और माँ की प्रतिमा को जल कुण्ड में प्रवाहित कर दिया जाता है। माँ को विदा करना शायद इतना आसान नहीं होता। विदाई से पूर्व भारी संख्या में विवाहित महिलाएं हाथ में प्रज्जवलित ज्योत, धूप, मिष्ठान और भोग की थाली लेकर माँ के प्रतिमा की परिक्रमा लगाती हैं। ये महिलाएं परिक्रमा के पश्चात दुर्गा माँ  को दही एवं मिष्ठान मिश्रित चिड़वा का स्वादिष्ट भोग स्वयं अपने स्नेहिल हाथों से खिलती हैं।  तत्पश्चात विवाहित महिलाएं माँ को सींदूर अर्पित करती हैं और फिर वही सींदूर स्वयं अपने मांग में डालती हैं। विवाहित महिलाएं एक वर्ष तक इसी सींदूर को धारण करती हैं। एक दूसरे को होली की भांति सींदूर लगाकर महिलाएं शंखनाद, ढोल और स्वयं के मुँह से ऊलूघ्वनी निकालते हुए एक दूसरे के साथ सींदूर से खेलती हैं। इसी कारण ये रीत सींदूर खेला के नाम से प्रचलित हुआ।
सींदूर खेला के पश्चात अपराजिता युक्त एक विशेष कवच कलाई पर धारण किया जाता है। अपराजिता नामक बेलदार पुष्प की पत्तियों को पीले वस्त्र से कलाई पर बांध लिया जाता है जो रक्षा कवच का काम करता है। ऐसी मान्यता है कि इसे धारण करने वाला व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में कठिन से कठिन कार्य में भी विफल नहीं हो सकता है। इस कवच को धारण करने वालों की कभी भी किसी हाल में भी पराजय नहीं हो सकती है। इसी लिए इसे अपराजिता कवच कहते हैं – अपराजिता यानि जिसकी पराजय कहीं न हो। नौ दिन तक सभी कार्य विधिवत और वेद वर्णित नियमों के अनुसार संपन्न हो जाने के पश्चात् दशमी के दिन माँ से अगले वर्ष लौटकर फिर वापिस आने का वायदा लेकर उन्हें भावभिनी श्रद्धा सहित विदा कर दिया जाता है। हालांकि माँ को विदा करते वक्त जहाँ एक तरफ मन में भारी वेदना होती है वहीं दूसरी तरफ माँ का अगले वर्ष लौटकर फिर वापिस आने के वायदे से मन में अपार हर्ष और उल्लास की अनुभूति भी होती है। विदा करते वक्त आइने में माँ की प्रतिबिम्ब को देखा जाता है जिससे सौभाग्य की प्राप्ति होती है। इसके पश्चात माँ की प्रतिमा को जलकुण्ड में प्रवाहित कर दिया जाता है। माँ की प्रतिमा के विसर्जित होते ही पाण्डाल के चारों ओर सन्नाटा छा जाता है और जो रौनक माँ के आने पर आई थी वो फीकी पड़ जाती है पर अगले ही क्षण मन यह सोचकर प्रफुल्लित हो उठता है कि माँ ने अगले वर्ष फिर आने का वायदा भी तो किया है। अगले वर्श तक मां के फिर से आने की प्रतिक्षा में
ॐ नमश्चण्डिकाय ||
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